कबसे
बैठे थे इस झील के किनारे
एक
चाँद लेकर चाँदनी के ख्वाब में
एक
दुजेमें मिटती लेहरोंको समायी हुई झील
लगती
है खुद एक खयाल जैसी...
किनारेको
किनारेसे जोडी हुई झील
जहाँ
मिलता है रास्ता अपने आपसे
ढुंढते
हुए किसी रोशनीको...
एक खयाल रात
की रोशनी में डुबा
चमकता
रहा उस पार किनारेके
और
हम देखते रहे आसमाँ की तरफ
करते
गिनती चाँदनी की !
बहुत हि उमदा और अदभूत पंक्तीया है..! इन पंक्तियो के भाव को समझाने के लिये भावविभोर होना पडेगा. खूब लिखा है शीतल! अंतर्मन को आसमान से जोडती हुई पंक्तीया..! लिखते रहिये इसी भाव एवं भाषा के साथ. शुभकामनाओ सहित.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteMast...
ReplyDelete'किनारेको किनारेसे जोडी हुई झील' This is what I was talking about..very uncommon...:)
ReplyDelete